वो रातों-रात 'सिरी-कृष्ण' को उठाए हुए
बला की क़ैद से 'बसदेव' का निकल जाना
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मैं देर तक तुझे ख़ुद ही न रोकता लेकिन
कमी न की तिरे वहशी ने ख़ाक उड़ाने में
मैं मुद्दतों जिया हूँ किसी दोस्त के बग़ैर
तुझ को पा कर भी न कम हो सकी बे-ताबी-ए-दिल
करते नहीं कुछ तो काम करना क्या आए
मैं हूँ दिल है तन्हाई है
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
'ग़ालिब' ओ 'मीर' 'मुसहफ़ी'
अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं