जहर Poetry (page 5)

इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ

शहरयार

ज़मीं से ता-ब-फ़लक धुँद की ख़ुदाई है

शहरयार

हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के

शहरयार

आँधी की ज़द में शम-ए-तमन्ना जलाई जाए

शहरयार

कोलाज़

शहनाज़ नबी

जब आफ़्ताब से चेहरा छुपा रही थी हवा

शहनवाज़ ज़ैदी

मैं ज़हर रही हर शाम रही

शाहिदा तबस्सुम

बात कोई एक पल उस के ध्यान के आने की थी

शाहिदा हसन

फैला हुआ है जिस्म में तन्हाइयों का ज़हर

शाहिद माहुली

रग रग में मेरी फैल गया है ये कैसा ज़हर

शाहिद माहुली

हर मरहले से यूँ तो गुज़र जाएगी ये शाम

शाहिद माहुली

लब तक जो न आया था वही हर्फ़-ए-रसा था

शाहिद इश्क़ी

लब तक जो न आया था वही हर्फ़-ए-रसा था

शाहिद इश्क़ी

ज़िंदगी पाने की हसरत है तो मरता क्यूँ है

शाहिद अहमद शोएब

ख़ुद अपने ज़हर को पीना बड़ा करिश्मा है

शाहीन ग़ाज़ीपुरी

तू ज़िद से शब-ए-वस्ल न आया तो हुआ क्या

शाह नसीर

पानियों से रेत पर जो आ गया मेरी तरह

शफ़ीउल्लाह राज़

गाँव रफ़्ता रफ़्ता बनते जाते हैं अब शहर

शफ़ीक़ सलीमी

ज़रा देखना ख़ाकसारी हमारी

शाद लखनवी

वहाँ भी ज़हर-ज़बाँ काम कर गया होगा

शबनम शकील

मजबूर हैं पर इतने तो मजबूर भी नहीं

शबनम शकील

अन-गिनत शादाब जिस्मों की जवानी पी गया

शबाब ललित

इतना ही नहीं है कि तिरे बिन न रहा जाए

शानुल हक़ हक़्क़ी

लहू पुकार के चुप है ज़मीन बोलती है

सीन शीन आलम

खोट की माला झूट जटाएँ अपने अपने ध्यान

सीमाब ज़फ़र

सुनी न दश्त या दरिया की भी कभी मैं ने

सीमा शर्मा मेरठी

''ना-गहाँ'' और ''बे-निहायत''

सत्यपाल आनंद

अपनी हम-ज़ाद के लिए

सरवत ज़ेहरा

तेरे लिए ईजाद हुआ था लफ़्ज़ जो है रा'नाई का

सरताज आलम आबिदी

लगा मजनूँ को ज़हर-ए-इश्क़ क्या आब-ए-बक़ा हो कर

सरताज आलम आबिदी

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