इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के
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कहाँ तक वक़्त के दरिया को हम ठहरा हुआ देखें
या मैं सोचूँ कुछ भी न उस के बारे में
अक्स-ए-याद-ए-यार को धुँदला किया है
है आज ये गिला कि अकेला है 'शहरयार'
तिलिस्म ख़त्म चलो आह-ए-बे-असर का हुआ
दाम-ए-उल्फ़त से छूटती ही नहीं
आँधियाँ आती थीं लेकिन कभी ऐसा न हुआ
इन दिनों मैं भी हूँ कुछ कार-ए-जहाँ में मसरूफ़
हम ख़ुश हैं हमें धूप विरासत में मिली है
अब रात की दीवार को ढाना है ज़रूरी
हवा चले वरक़-ए-आरज़ू पलट जाए
दिल रिझा है तुझ पे ऐसा बद-गुमाँ होगा नहीं