फैला हुआ है जिस्म में तन्हाइयों का ज़हर
रग रग में जैसे सारी उदासी उतर गई
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रग रग में मेरी फैल गया है ये कैसा ज़हर
रंग बे-रंग हुआ डूब गईं आवाज़ें
ग़म की तहज़ीब अज़िय्यत का क़रीना सीखें
वक़्फ़ा
कश्ती रवाँ-दवाँ थी समुंदर खुला हुआ
हाशिए पर कुछ हक़ीक़त कुछ फ़साना ख़्वाब का
हर मरहले से यूँ तो गुज़र जाएगी ये शाम
हर दर-ओ-दीवार पे लर्ज़ां कोई पैकर लगे
बाम-ओ-दर टूट गए बह गया पानी कितना