अंदर Poetry (page 14)

ज़ेहन की क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे

सालिम सलीम

सुकूत-ए-अर्ज़-ओ-समा में ख़ूब इंतिशार देखूँ

सालिम सलीम

न छीन ले कहीं तन्हाई डर सा रहता है

सालिम सलीम

कुछ भी नहीं है बाक़ी बाज़ार चल रहा है

सालिम सलीम

जिस्म की सतह पे तूफ़ान किया जाएगा

सालिम सलीम

हवा से इस्तिफ़ादा कर लिया है

सालिम सलीम

दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ

सालिम सलीम

मैं रोऊँ तो दर-ओ-दीवार मुझ पर हँसने लगते हैं

सलीम साग़र

मिरे वहम-ओ-गुमाँ से भी ज़ियादा टूट जाता है

सलीम साग़र

नहीं है कोई दूसरा मंज़र चारों ओर

सलीम शहज़ाद

हर लहज़ा उस के पाँव की आहट पे कान रख

सलीम शाहिद

सूरज ज़मीं की कोख से बाहर भी आएगा

सलीम शाहिद

ख़्वाहिश को अपने दर्द के अंदर समेट ले

सलीम शाहिद

जुरअत-ए-इज़हार का उक़्दा यहाँ कैसे खुले

सलीम शाहिद

हर्फ़-ए-बे-मतलब की मैं ने किस क़दर तफ़्सीर की

सलीम शाहिद

घर के दरवाज़े खुले हों चोर का खटका न हो

सलीम शाहिद

दर्द की ख़ुश्बू से सारा घर मोअ'त्तर हो गया

सलीम शाहिद

कभी मौसम साथ नहीं देते कभी बेल मुंडेर नहीं चढ़ती

सलीम कौसर

कहीं आँखें कहीं बाज़ू कहीं से सर निकल आए

सलीम फ़िगार

देख माज़ी के दरीचों को कभी खोला न कर

सलीम फ़राज़

ये चाहा था कि पत्थर बन के जी लूँ

सलीम अहमद

जाने अंदर क्या हुआ मैं शोर सुन कर ऐ 'सलीम'

सलीम अहमद

नुक़्ता

सलीम अहमद

मशरिक़ हार गया

सलीम अहमद

तिरे साँचे में ढलता जा रहा हूँ

सलीम अहमद

स्वाँग भरता हूँ तिरे शहर में सौदाई का

सलीम अहमद

ख़ैर का तुझ को यक़ीं है और उस को शर का है

सलीम अहमद

कल नशात-ए-क़ुर्ब से मौसम बहार-अंदाज़ा था

सलीम अहमद

जो आँखों के तक़ाज़े हैं वो नज़्ज़ारे बनाता हूँ

सलीम अहमद

दिल के अंदर दर्द आँखों में नमी बन जाइए

सलीम अहमद

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