हर लहज़ा उस के पाँव की आहट पे कान रख
दरवाज़े तक जो आया है अंदर भी आएगा
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सुब्ह-ए-सफ़र का राज़ किसी पर यहाँ न खोल
क्या मेरा इख़्तियार ज़मान-ओ-मकान पर
फिर कोई महशर उठाने मेरी तन्हाई में आ
वो ख़ूँ बहा कि शहर का सदक़ा उतर गया
फ़र्श-ए-ज़मीं पे बर्ग-ए-ख़िज़ानी का रंग है
हर बज़्म क्यूँ नुमाइश-ए-ज़ख़्म-ए-हुनर बने
क़ाइल करूँ किस बात से मैं तुझ को सितमगर
मुर्दा रगों में ख़ून की गर्मी कहाँ से आई
ख़्वाहिश को अपने दर्द के अंदर समेट ले
मौसम का ज़हर दाग़ बने क्यूँ लिबास पर
मिरी थकन मिरे क़स्द-ए-सफ़र से ज़ाहिर है
जुरअत-ए-इज़हार का उक़्दा यहाँ कैसे खुले