हर बज़्म क्यूँ नुमाइश-ए-ज़ख़्म-ए-हुनर बने
हर भेद अपने दोस्तों के दरमियाँ न खोल
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अब शहर की और दश्त की है एक कहानी
दिल भर आए और अब्र-ए-दीदा में पानी न हो
वो ख़ूँ बहा कि शहर का सदक़ा उतर गया
सब थकन आँख में सिमट जाए
मिरी थकन मिरे क़स्द-ए-सफ़र से ज़ाहिर है
खुलती है गुफ़्तुगू से गिरह पेच-ओ-ताब की
फिर कोई महशर उठाने मेरी तन्हाई में आ
मत पूछ हर्फ़-ए-दर्द की तफ़्सीर कुछ भी हो
बे-वज़्अ शब-ओ-रोज़ की तस्वीर दिखा कर
अब्र सरका चाँद की चेहरा-नुमाई हो गई
ज़मीं को सज्दा किया ख़ूँ से बा-वज़ू हो कर