ज़मीं को सज्दा किया ख़ूँ से बा-वज़ू हो कर
ज़मीं को सज्दा किया ख़ूँ से बा-वज़ू हो कर
मैं रज़्म-गाह से लौटा हूँ सुरख़-रू हो कर
जहाँ में फैल गई दूद-ए-शो'ला से ज़ुल्मत
फ़लक पे बह गया सूरज लहू लहू हो कर
मुझे था दाम-ए-असीरी नशेब दरिया का
उछल गया मैं किनारों से तुंद-ख़ू हो कर
गुरेज़-पाई को है गुमरही का दश्त-ए-बला
ख़त-ए-सफ़र तो चमकता है आब-जू हो कर
वो लम्स ज़ाइक़ा जिस ने मिरी ज़बाँ को दिया
बिखर न जाए कहीं सौत-ए-गुफ़्तुगू हो कर
किया है पुर्सिश-ए-अहवाल-ए-ज़ख़्म ने रुस्वा
ये चाक और नुमायाँ हुआ रफ़ू हो कर
रही न टूट के गिरने से मेरी यकताई
मैं पाश पाश हुआ ख़ुद से दू-ब-दू हो कर
ज़बान-ए-ख़ल्क़ पे शाहिद मैं हर्फ़-ए-तल्ख़ रहा
उड़ी न ख़ाक मिरी गर्द-ए-आबरू हो कर
(565) Peoples Rate This