हर तरफ़ से इन्फ़िरादी जब्र की यलग़ार है
किन महाज़ों पर लड़े तन्हा दिफ़ाई आदमी
मैं सिमटता जा रहा हूँ एक नुक़्ते की तरह
मेरे अंदर मर रहा है इज्तिमाई आदमी
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लिबास-ए-दर्द भी हम ने उतारा
जिस का इंकार भी इंकार न समझा जाए
हाल मत पूछ मोहब्बत का हवा है कुछ और
तर्क उन से रस्म-ओ-राह-ए-मुलाक़ात हो गई
रोज़ काग़ज़ पे बनाता हूँ मैं क़दमों के नुक़ूश
दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
खेल
कुछ हैं मंज़र हाल के कुछ ख़्वाब मुस्तक़बिल के हैं
जो दिल में हैं दाग़ जल रहे हैं
सच तो कह दूँ मगर इस दौर के इंसानों को
दिया