मिरे चारों तरफ़ हैं मेरे साए
ख़ुद अपनी तीरगी में घिर गया हूँ
दिए की तरह आधी रात को मैं
किसी ख़ाली मकाँ में जल रहा हूँ
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कैसे क़िस्से थे कि छिड़ जाएँ तो उड़ जाती थी नींद
जाने किसी ने क्या कहा तेज़ हवा के शोर में
इश्क़ और नंग-ए-आरज़ू से आर
अहल-ए-दिल ने इश्क़ में चाहा था जैसा हो गया
सफ़र में इश्क़ के इक ऐसा मरहला आया
स्वाँग भरता हूँ तिरे शहर में सौदाई का
शायद कोई बंदा-ए-ख़ुदा आए
पागल
रस्म-ए-जहाँ न छूट सकी तर्क-ए-इश्क़ से
दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
मेरा दुश्मन
बुरा लगा मिरे साक़ी को ज़िक्र-ए-तिश्ना-लबी