बुरा लगा मिरे साक़ी को ज़िक्र-ए-तिश्ना-लबी
कि ये सवाल मिरी बज़्म में कहाँ से उठा
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दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
मुझ से कहता है कि साए की तरह साथ हैं हम
ख़ैर का तुझ को यक़ीं है और उस को शर का है
जो बात दिल में थी वो कब ज़बान पर आई
नुक़्ता
ये चाहा था कि पत्थर बन के जी लूँ
समाअतों को अमीन-ए-नवा-ए-राज़ किया
मैं तुझ को कितना चाहता हूँ
ये कैसे लोग हैं सदियों की वीरानी में रहते हैं
घर में कुछ कम है ये एहसास भी होता है 'सलीम'
किसी को क्या बताऊँ कौन हूँ मैं
उन को जल्वत की हवस महफ़िल में तन्हा कर गई