मुझ से कहता है कि साए की तरह साथ हैं हम
यूँ न मिलने का निकाला है बहाना कैसा
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वस्ल ओ फ़स्ल की हर मंज़िल में शामिल इक मजबूरी थी
किसी को क्या बताऊँ कौन हूँ मैं
जाने अंदर क्या हुआ मैं शोर सुन कर ऐ 'सलीम'
लिबास-ए-दर्द भी हम ने उतारा
न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
एक दरवाज़े पर
देवता बनने की हसरत में मुअल्लक़ हो गए
शायद कोई बंदा-ए-ख़ुदा आए
जो आँखों के तक़ाज़े हैं वो नज़्ज़ारे बनाता हूँ
हर आँख का हासिल दूरी है
'सलीम' दश्त-ए-तमन्ना में कौन है किस का
क़ुर्ब-ए-बदन से कम न हुए दिल के फ़ासले