किसी को क्या बताऊँ कौन हूँ मैं
कि अपनी दास्ताँ भूला हुआ हूँ
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नहीं रहा मैं तिरे रास्ते का पत्थर भी
वो बे-ख़ुदी थी मोहब्बत की बे-रुख़ी तो न थी
वो जुनूँ को बढ़ाए जाएँगे
आफ़ाक़
स्वाँग भरता हूँ तिरे शहर में सौदाई का
कैसे क़िस्से थे कि छिड़ जाएँ तो उड़ जाती थी नींद
मेरा चेहरा
ज़िंदगी मौत के पहलू में भली लगती है
वस्ल ओ फ़स्ल की हर मंज़िल में शामिल इक मजबूरी थी
याद ने आ कर यकायक पर्दा खींचा दूर तक
दिल के अंदर दर्द आँखों में नमी बन जाइए
बजा ये रौनक़-ए-महफ़िल मगर कहाँ हैं वो लोग