ख़ुश-नुमा लफ़्ज़ों की रिश्वत दे के राज़ी कीजिए
रूह की तौहीन पर आमादा रहता है बदन
Mir Taqi Mir
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मैं वो मअ'नी-ए-ग़म-ए-इश्क़ हूँ जिसे हर्फ़ हर्फ़ लिखा गया
लिबास-ए-दर्द भी हम ने उतारा
उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे
और तो क्या दिया बहारों ने
दिल के लेने से 'सलीम' उस को नहीं है इंकार
इश्क़ और इतना मोहज़्ज़ब छोड़ कर दीवाना-पन
मजबूरियों का पास भी कुछ था वफ़ा के साथ
दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
नया मकान
जिस का इंकार भी इंकार न समझा जाए
क़िस्सा छेड़ा मेहर ओ वफ़ा का अव्वल-ए-शब उन आँखों ने
सच तो कह दूँ मगर इस दौर के इंसानों को