मैं वो मअ'नी-ए-ग़म-ए-इश्क़ हूँ जिसे हर्फ़ हर्फ़ लिखा गया
कभी आँसुओं की बयाज़ में कभी दिल से ले के किताब तक
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सफ़र
न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
स्वाँग भरता हूँ तिरे शहर में सौदाई का
जिस का इंकार भी इंकार न समझा जाए
लम्हा-ए-रफ़्ता का दिल में ज़ख़्म सा बन जाएगा
इतनी काविश भी न कर मेरी असीरी के लिए
माने तो किस की दीवाना माने
इक आग सी जलती रही ता-उम्र लहू में
और तो क्या दिया बहारों ने
निकल गए हैं जो बादल बरसने वाले थे
कौन तू है कौन मैं कैसी वफ़ा
तिरे साँचे में ढलता जा रहा हूँ