दिल के लेने से 'सलीम' उस को नहीं है इंकार
लेकिन इस तरह कि इक़रार न समझा जाए
Faiz Ahmad Faiz
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जितना आँख से कम देखूँ
ख़मोशी के हैं आँगन और सन्नाटे की दीवारें
तिरे साँचे में ढलता जा रहा हूँ
एक ख़ुश्बू दिल-ओ-जाँ से आई
क़िस्सा छेड़ा मेहर ओ वफ़ा का अव्वल-ए-शब उन आँखों ने
जाने किसी ने क्या कहा तेज़ हवा के शोर में
दिलों में दर्द भरता आँख में गौहर बनाता हूँ
बुरा लगा मिरे साक़ी को ज़िक्र-ए-तिश्ना-लबी
मैं सर छुपाऊँ कहाँ साया-ए-नज़र के बग़ैर
वस्ल ओ फ़स्ल की हर मंज़िल में शामिल इक मजबूरी थी
चली है मौज में काग़ज़ की कश्ती
कुछ हैं मंज़र हाल के कुछ ख़्वाब मुस्तक़बिल के हैं