ख़मोशी के हैं आँगन और सन्नाटे की दीवारें
ये कैसे लोग हैं जिन को घरों से डर नहीं लगता
Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
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तिरी जानिब से दिल में वसवसे हैं
आँखों में सितारे से चमकते रहे ता-देर
सख़्त बीवी को शिकायत है जवान-ए-नौ से
दीदनी है हमारी ज़ेबाई
मैं ग़म को बसा रहा हूँ दिल में
'सलीम' दिल को मयस्सर सकूँ ज़रा न हुआ
वो लोग भी हैं जो मौजों से डर गए होंगे
नया मकान
सच तो कह दूँ मगर इस दौर के इंसानों को
आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला
वो जुनूँ को बढ़ाए जाएँगे
दिया