आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला
भेड़ीए पढ़ते नहीं हैं फ़ल्सफ़ा
Allama Iqbal
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मुझ से कहता है कि साए की तरह साथ हैं हम
तू शीशा बने कि संग कुछ बन
सच तो कह दूँ मगर इस दौर के इंसानों को
मैं उस को भूल गया था वो याद सा आया
सख़्त बीवी को शिकायत है जवान-ए-नौ से
हम हैं और राह-ए-कू-ए-बदनामी
दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
चली है मौज में काग़ज़ की कश्ती
घास में जज़्ब हुए होंगे ज़मीं के आँसू
देखने के लिए इक शर्त है मंज़र होना
बार-हा यूँ भी हुआ तेरी मोहब्बत की क़सम
वो जुनूँ को बढ़ाए जाएँगे