चली है मौज में काग़ज़ की कश्ती
उसे दरिया का अंदाज़ा नहीं है
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घर में कुछ कम है ये एहसास भी होता है 'सलीम'
किन नक़ाबों में है मस्तूर वो हुस्न-ए-मा'सूम
जितना आँख से कम देखूँ
हम ने शिकवा कभी किया न करें
ज़िंदगी मौत के पहलू में भली लगती है
मैं वो मअ'नी-ए-ग़म-ए-इश्क़ हूँ जिसे हर्फ़ हर्फ़ लिखा गया
कैसे क़िस्से थे कि छिड़ जाएँ तो उड़ जाती थी नींद
लम्हा-ए-रफ़्ता का दिल में ज़ख़्म सा बन जाएगा
जो बात दिल में थी वो कब ज़बान पर आई
दिया
उन को जल्वत की हवस महफ़िल में तन्हा कर गई
सच तो कह दूँ मगर इस दौर के इंसानों को