जितना आँख से कम देखूँ
उतनी दूर दिखाई दे
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जो दिल में हैं दाग़ जल रहे हैं
नया मज़मूँ किताब-ए-ज़ीस्त का हूँ
कल नशात-ए-क़ुर्ब से मौसम बहार-अंदाज़ा था
दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
ये ख़्वाब और भी देखेंगे रात बाक़ी है
दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
अब
जो बात दिल में थी वो कब ज़बान पर आई
रस्म-ए-जहाँ न छूट सकी तर्क-ए-इश्क़ से
सख़्त बीवी को शिकायत है जवान-ए-नौ से
उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे