उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे
उस एक शख़्स में किस किस को देखता था मैं
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घर में कुछ कम है ये एहसास भी होता है 'सलीम'
अब
दिल हुस्न को दान दे रहा हूँ
तिरे साँचे में ढलता जा रहा हूँ
एक ख़ुश्बू दिल-ओ-जाँ से आई
मुझे हर्फ़-ए-ग़लत समझा था तू ने
सख़्त बीवी को शिकायत है जवान-ए-नौ से
तर्क उन से रस्म-ओ-राह-ए-मुलाक़ात हो गई
आफ़ाक़
उन को जल्वत की हवस महफ़िल में तन्हा कर गई
मुझ से कहता है कि साए की तरह साथ हैं हम
नया मज़मूँ किताब-ए-ज़ीस्त का हूँ