मुझे हर्फ़-ए-ग़लत समझा था तू ने
सो मैं मअ'नी का दफ़्तर हो गया हूँ
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बैठे हैं सुनहरी कश्ती में और सामने नीला पानी है
सफ़र में इश्क़ के इक ऐसा मरहला आया
दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
बहुत तवील मिरी दास्तान-ए-ग़म थी मगर
इक आग सी जलती रही ता-उम्र लहू में
देवता बनने की हसरत में मुअल्लक़ हो गए
ख़मोशी के हैं आँगन और सन्नाटे की दीवारें
मुझ को दुश्वार हुआ जिस का नज़ारा तन्हा
न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
ये कैसे लोग हैं सदियों की वीरानी में रहते हैं
राख