बहुत तवील मिरी दास्तान-ए-ग़म थी मगर
ग़ज़ल से काम लिया मुख़्तसर बनाने का
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आँखों में सितारे से चमकते रहे ता-देर
नया मज़मूँ किताब-ए-ज़ीस्त का हूँ
ये चाहा था कि पत्थर बन के जी लूँ
देखने के लिए इक शर्त है मंज़र होना
मेरा शोर-ए-ग़र्क़ाबी ख़त्म हो गया आख़िर
'सलीम' दिल को मयस्सर सकूँ ज़रा न हुआ
आज तो नहीं मिलता ओर-छोर दरिया का
बार-हा यूँ भी हुआ तेरी मोहब्बत की क़सम
मजबूरियों का पास भी कुछ था वफ़ा के साथ
बन के दुनिया का तमाशा मो'तबर हो जाएँगे
मेरी ग़ज़ल में एक नया सोज़-ए-जाँ भी है
लम्हा-ए-रफ़्ता का दिल में ज़ख़्म सा बन जाएगा