मेरा शोर-ए-ग़र्क़ाबी ख़त्म हो गया आख़िर
और रह गया बाक़ी सिर्फ़ शोर दरिया का
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और तो क्या दिया बहारों ने
वो लोग भी हैं जो मौजों से डर गए होंगे
ये ख़्वाब और भी देखेंगे रात बाक़ी है
हाल मत पूछ मोहब्बत का हवा है कुछ और
दिल के लेने से 'सलीम' उस को नहीं है इंकार
सोच में गुम बे-कराँ पहनाइयाँ
जो आँखों के तक़ाज़े हैं वो नज़्ज़ारे बनाता हूँ
मैं ग़म को बसा रहा हूँ दिल में
एक दरवाज़े पर
आफ़ाक़
इस आँख में ख़्वाब-ए-नाज़ हो जा
सख़्त बीवी को शिकायत है जवान-ए-नौ से