मैं ग़म को बसा रहा हूँ दिल में
बे-घर को मकान दे रहा हूँ
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जो आँखों के तक़ाज़े हैं वो नज़्ज़ारे बनाता हूँ
दीदनी है हमारी ज़ेबाई
स्वाँग भरता हूँ तिरे शहर में सौदाई का
ख़मोशी के हैं आँगन और सन्नाटे की दीवारें
चली है मौज में काग़ज़ की कश्ती
मैं उस को भूल गया था वो याद सा आया
देखने के लिए इक शर्त है मंज़र होना
मिला जो काम ग़म-ए-मो'तबर बनाने का
'सलीम' दश्त-ए-तमन्ना में कौन है किस का
साथ उस के रह सके न बग़ैर उस के रह सके
बहुत तवील मिरी दास्तान-ए-ग़म थी मगर
ये कैसे लोग हैं सदियों की वीरानी में रहते हैं