साथ उस के रह सके न बग़ैर उस के रह सके
ये रब्त है चराग़ का कैसा हवा के साथ
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वो जुनूँ को बढ़ाए जाएँगे
सफ़र में इश्क़ के इक ऐसा मरहला आया
ख़ुद अपनी दीद से अंधी हैं आँखें
न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
मुझ को दुश्वार हुआ जिस का नज़ारा तन्हा
रोज़ काग़ज़ पे बनाता हूँ मैं क़दमों के नुक़ूश
निकल गए हैं जो बादल बरसने वाले थे
इश्क़ में जिस के ये अहवाल बना रक्खा है
ख़ुश-नुमा लफ़्ज़ों की रिश्वत दे के राज़ी कीजिए
ये कैसे लोग हैं सदियों की वीरानी में रहते हैं
दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
मुझ से कहता है कि साए की तरह साथ हैं हम