सफ़र में इश्क़ के इक ऐसा मरहला आया
वो ढूँडता था मुझे और खो गया था मैं
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मुझ से कहता है कि साए की तरह साथ हैं हम
चली है मौज में काग़ज़ की कश्ती
न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
मशरिक़ हार गया
मुझे इन आते जाते मौसमों से डर नहीं लगता
समाअतों को अमीन-ए-नवा-ए-राज़ किया
ये ख़्वाब और भी देखेंगे रात बाक़ी है
ये चाहा था कि पत्थर बन के जी लूँ
दिल जो इस बज़्म में आता है तो जाता ही नहीं
ख़ुश-नुमा लफ़्ज़ों की रिश्वत दे के राज़ी कीजिए
मैं ग़म को बसा रहा हूँ दिल में
इक आग सी जलती रही ता-उम्र लहू में