दिल जो इस बज़्म में आता है तो जाता ही नहीं
एक दिन देखना दीवाना हुआ रक्खा है
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आज तो नहीं मिलता ओर-छोर दरिया का
इस आँख में ख़्वाब-ए-नाज़ हो जा
ख़ुद अपनी दीद से अंधी हैं आँखें
उम्र भर काविश-ए-इज़हार ने सोने न दिया
ये ख़्वाब और भी देखेंगे रात बाक़ी है
इश्क़ में जिस के ये अहवाल बना रक्खा है
शायद कोई बंदा-ए-ख़ुदा आए
तर्क उन से रस्म-ओ-राह-ए-मुलाक़ात हो गई
दीदनी है हमारी ज़ेबाई
तिरी जानिब से दिल में वसवसे हैं
इश्क़ और नंग-ए-आरज़ू से आर
आँसुओं से तू है ख़ाली दर्द से आरी हूँ मैं