वो जुनूँ को बढ़ाए जाएँगे
उन की शोहरत है मेरी रुस्वाई
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नहीं रहा मैं तिरे रास्ते का पत्थर भी
मुझे गिला न किसी संग का न आहन का
पागल
ये नहीं है कि नवाज़े न गए हों हम लोग
इतनी काविश भी न कर मेरी असीरी के लिए
अहल-ए-दिल ने इश्क़ में चाहा था जैसा हो गया
मुझे इन आते जाते मौसमों से डर नहीं लगता
जा के फिर लौट जो आए वो ज़माना कैसा
रस्म-ए-जहाँ न छूट सकी तर्क-ए-इश्क़ से
उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे
ख़ैर का तुझ को यक़ीं है और उस को शर का है
चली है मौज में काग़ज़ की कश्ती