वो बे-ख़ुदी थी मोहब्बत की बे-रुख़ी तो न थी
पे उस को तर्क-ए-तअल्लुक़ को इक बहाना हुआ
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मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ़ पे हँसते हैं
और तो क्या दिया बहारों ने
निकल गए हैं जो बादल बरसने वाले थे
इक आग सी जलती रही ता-उम्र लहू में
चली है मौज में काग़ज़ की कश्ती
आज तो नहीं मिलता ओर-छोर दरिया का
लम्हा-ए-रफ़्ता का दिल में ज़ख़्म सा बन जाएगा
हाल मत पूछ मोहब्बत का हवा है कुछ और
नहीं रहा मैं तिरे रास्ते का पत्थर भी
हर आँख का हासिल दूरी है
बहुत तवील मिरी दास्तान-ए-ग़म थी मगर
किसी को क्या बताऊँ कौन हूँ मैं