ये नहीं है कि नवाज़े न गए हों हम लोग
हम को सरकार से तमग़ा मिला रुस्वाई का
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खेल
ख़ैर का तुझ को यक़ीं है और उस को शर का है
उन को जल्वत की हवस महफ़िल में तन्हा कर गई
तू शीशा बने कि संग कुछ बन
नींद से पहले
ख़ुद अपनी लौ में था मेहराब-ए-जाँ में जलता था
दश्त ओ दर ख़ैर मनाएँ कि अभी वहशत में
मंज़िल-ए-बे-जहत की ख़ैर सई-ए-सफ़र है राएगाँ
मैं ग़म को बसा रहा हूँ दिल में
एक ख़ुश्बू दिल-ओ-जाँ से आई
स्वाँग भरता हूँ तिरे शहर में सौदाई का
मुझे हर्फ़-ए-ग़लत समझा था तू ने