शाम को दफ़्तर के ब'अद
वापसी पर घर की सम्त
मैं ने देखा मेरे बच्चे
खेल में मसरूफ़ हैं
इतने संजीदा कि जैसे खेल ही हो ज़िंदगी
खेल ही में सारे ग़म हों खेल ही सारी ख़ुशी
ऐ ख़ुदा!
मेरे फ़न में दे मुझे
तू मेरे बच्चों की तरह
खेल की संजीदगी
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जिन
तू शीशा बने कि संग कुछ बन
मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ़ पे हँसते हैं
सफ़र में इश्क़ के इक ऐसा मरहला आया
इतनी काविश भी न कर मेरी असीरी के लिए
उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे
आँखों में सितारे से चमकते रहे ता-देर
क़ुर्ब-ए-बदन से कम न हुए दिल के फ़ासले
नुक़्ता
जाने अंदर क्या हुआ मैं शोर सुन कर ऐ 'सलीम'
सफ़र
इश्क़ और इतना मोहज़्ज़ब छोड़ कर दीवाना-पन