घर में कुछ कम है ये एहसास भी होता है 'सलीम'
ये भी खुलता नहीं किस शय की कमी लगती है
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कोई सितारा-ए-गिर्दाब आश्ना था मैं
लिबास-ए-दर्द भी हम ने उतारा
जो बात दिल में थी वो कब ज़बान पर आई
एक दरवाज़े पर
दिल के लेने से 'सलीम' उस को नहीं है इंकार
नया मकान
बैठे हैं सुनहरी कश्ती में और सामने नीला पानी है
नया मज़मूँ किताब-ए-ज़ीस्त का हूँ
मुझ को दुश्वार हुआ जिस का नज़ारा तन्हा
शायद कोई बंदा-ए-ख़ुदा आए
नींद से पहले
मैं सर छुपाऊँ कहाँ साया-ए-नज़र के बग़ैर