नए इम्काँ को सूरत दे रहा हूँ
गिरा कर ख़ुद दर-ओ-दीवार अपने
मैं अपने घर को वुसअत दे रहा हूँ
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नया मकान
वो जुनूँ को बढ़ाए जाएँगे
वस्ल ओ फ़स्ल की हर मंज़िल में शामिल इक मजबूरी थी
इश्क़ और इतना मोहज़्ज़ब छोड़ कर दीवाना-पन
आ के अब जंगल में ये उक़्दा खुला
कोई सितारा-ए-गिर्दाब आश्ना था मैं
मंज़िल-ए-बे-जहत की ख़ैर सई-ए-सफ़र है राएगाँ
इश्क़ में जिस के ये अहवाल बना रक्खा है
इस आँख में ख़्वाब-ए-नाज़ हो जा
ये कैसे लोग हैं सदियों की वीरानी में रहते हैं
ये नहीं है कि नवाज़े न गए हों हम लोग
दिल जो इस बज़्म में आता है तो जाता ही नहीं