वस्ल ओ फ़स्ल की हर मंज़िल में शामिल इक मजबूरी थी
वस्ल ओ फ़स्ल की हर मंज़िल में शामिल इक मजबूरी थी
तुझ से मिलते तो क्या मिलते ख़ुद से भी महजूरी थी
वस्ल के सारे लम्हे झूटे मिलना क़र्ज़-ए-जुदाई था
साथ हमारे पहलू-ब-पहलू क़ुर्ब के भेस में दूरी थी
आहों की तामीरें की थीं सब्र के बाग़ लगाए थे
शहर-ए-वफ़ा में मेहनत-ए-जाँ की रोज़ नई मज़दूरी थी
बातें लाखों कुछ भी कहिए लेकिन उस के ब'अद ये फ़िक्र
जाने क्या कहना भूले हैं कोई बात ज़रूरी थी
क़िस्सा छेड़ा मेहर ओ वफ़ा का अव्वल-ए-शब उन आँखों ने
रात कटी और उम्र गुज़ारी फिर भी बात अधूरी थी
ब'अद में क्या अंजाम हुआ ये आगे पढ़ने वाले बताएँ
उस की किताब-ए-दिलदारी की पहली जिल्द तो पूरी थी
(562) Peoples Rate This