जिस आग से दिल सुलग रहे थे
अब उस से दिमाग़ जल रहे हैं
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मेरा चेहरा
दिलों में दर्द भरता आँख में गौहर बनाता हूँ
ये कैसे लोग हैं सदियों की वीरानी में रहते हैं
खेल
ख़ुद अपनी दीद से अंधी हैं आँखें
सफ़र में इश्क़ के इक ऐसा मरहला आया
जा के फिर लौट जो आए वो ज़माना कैसा
मैं सर छुपाऊँ कहाँ साया-ए-नज़र के बग़ैर
मैं तुझ को कितना चाहता हूँ
जो बात दिल में थी वो कब ज़बान पर आई
देवता बनने की हसरत में मुअल्लक़ हो गए
इक आग सी जलती रही ता-उम्र लहू में