न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
कि जो भी लफ़्ज़ था वो दिल दुखाने वाला था
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बैठे हैं सुनहरी कश्ती में और सामने नीला पानी है
आज तो नहीं मिलता ओर-छोर दरिया का
हम ने शिकवा कभी किया न करें
ख़ुश-नुमा लफ़्ज़ों की रिश्वत दे के राज़ी कीजिए
दश्त ओ दर ख़ैर मनाएँ कि अभी वहशत में
मुझ को दुश्वार हुआ जिस का नज़ारा तन्हा
दिया
जाने अंदर क्या हुआ मैं शोर सुन कर ऐ 'सलीम'
मंज़िल-ए-बे-जहत की ख़ैर सई-ए-सफ़र है राएगाँ
बार-हा यूँ भी हुआ तेरी मोहब्बत की क़सम
वो जुनूँ को बढ़ाए जाएँगे
दिल के लेने से 'सलीम' उस को नहीं है इंकार