कार्यालय Poetry (page 4)

ये कैसी रुत आ गई जुनूँ की

फ़ारूक़ नाज़की

गहरी नीली शाम का मंज़र लिखना है

फ़ारूक़ नाज़की

सहरा के संगीन सफ़र में आब-रसानी कम न पड़े

फ़रहत एहसास

खड़ी है रात अंधेरों का अज़दहाम लगाए

फ़रहत एहसास

बहुत सी आँखें लगीं हैं और एक ख़्वाब तय्यार हो रहा है

फ़रहत एहसास

वो जी गया जो इश्क़ में जी से गुज़र गया

फ़ानी बदायुनी

वा-ए-नादानी ये हसरत थी कि होता दर खुला

फ़ानी बदायुनी

लोग कहते हैं बहुत हम ने कमाई दुनिया

फ़ैज़ ख़लीलाबादी

शीशों का मसीहा कोई नहीं

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

नुसख़ा-ए-उल्फ़त मेरा

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

रिश्वत-ख़ोर सरकारी मुलाज़मीन

दिलावर फ़िगार

शोर से बच्चों के घबराते हैं घर पर और हम

दिलावर फ़िगार

कौन सा ताइर-ए-गुम-गश्ता उसे याद आया

दाग़ देहलवी

दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-ईमाँ होना

चकबस्त ब्रिज नारायण

दीवार-ए-काबा 19 नवम्बर 1989

बिलाल अहमद

न सही आप हमारे जो मुक़द्दर में नहीं

बेख़ुद देहलवी

तेरी उल्फ़त शोबदा-पर्वाज़ है

बेदम शाह वारसी

ये आरज़ू है कि वो नामा-बर से ले काग़ज़

बयाँ अहसनुल्लाह ख़ान

क़र्या क़र्या ख़ाक उड़ाई कूचा-गर्द फ़क़ीर हुए

बशीर अहमद बशीर

ऐसा वार पड़ा सर का

बाक़ी सिद्दीक़ी

आसमाँ साहिल समुंदर और मैं

अज़रा परवीन

आसमाँ गर्दिश में था सारी ज़मीं चक्कर में थी

अतीक़ मुज़फ़्फ़रपुरी

ख़्वाब की दिल्ली

अता आबिदी

मज़दूरों का गीत

असरार-उल-हक़ मजाज़

ख़ाना-ब-दोश

असरार-उल-हक़ मजाज़

दयार-ए-हिज्र में ख़ुद को तो अक्सर भूल जाता हूँ

असलम कोलसरी

दीवारों को दिल से बाहर रखने वाले

असलम बदर

जो नक़्श है हस्ती का धोका नज़र आता है

असग़र गोंडवी

दूर थे होश-ओ-हवास अपने से भी बेगाना था

आरज़ू लखनवी

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