कार्यालय Poetry (page 2)

ये रात कितनी भयानक है बाम-ओ-दर के लिए

शातिर हकीमी

छुट्टी का दिन

शारिक़ कैफ़ी

चला जाता था 'हातिम' आज कुछ वाही-तबाही सा

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

मैं अपने दस्त पर शब ख़्वाब में देखा कि अख़गर था

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

आशिक़ों के सैर करने का जहाँ ही और है

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

सब्त है चेहरों पे चुप बन में अंधेरा हो चुका

शहज़ाद अहमद

मेज़ पे चेहरा ज़ुल्फ़ें काग़ज़ पर

शहनवाज़ ज़ैदी

एक लम्हा

शाहिद माहुली

ले के बे-शक हाथ में ख़ंजर चलो

शबाब ललित

जाग और देख ज़रा आलम-ए-वीराँ मेरा

सीमाब अकबराबादी

डॉज-महल

सरफ़राज़ शाहिद

दफ़्तर-ए-शादी का मुन्तज़िम

सरफ़राज़ शाहिद

शादी के जो अफ़्साने हैं रंगीन बहुत हैं

सरफ़राज़ शाहिद

बढ़ती रही हर साल जो तादाद हमारी

सरफ़राज़ शाहिद

मिलता जो कोई टुकड़ा इस चर्ख़-ए-ज़बरजद में

साक़िब लखनवी

ख़्वाहिश को अपने दर्द के अंदर समेट ले

सलीम शाहिद

मुझे हर्फ़-ए-ग़लत समझा था तू ने

सलीम अहमद

खेल

सलीम अहमद

चैत

सलाहुद्दीन परवेज़

हम क़त्ल कब हुए ये पता ही नहीं चला

सहर महमूद

कैसे कैसे मंज़र मेरी आँखों में आ जाते हैं

सग़ीर अालम

नज़्म

सईदुद्दीन

आप अपनी नक़ाब है प्यारे

रियासत अली ताज

रंग उस महफ़िल-ए-तमकीं में जमाया न गया

रविश सिद्दीक़ी

ठहर जावेद के अरमाँ दिल-ए-मुज़्तर निकलते हैं

रशीद लखनवी

शराब-ए-नाब का क़तरा जो साग़र से निकल जाए

रशीद लखनवी

वो हँसते खेलते इक लफ़्ज़ कह गया 'बानी'

राजेन्द्र मनचंदा बानी

दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला

राजेन्द्र मनचंदा बानी

कहाँ तलाश करूँ अब उफ़ुक़ कहानी का

राजेन्द्र मनचंदा बानी

ग़ाएब हर मंज़र मेरा

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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