जिगर Poetry (page 17)

ज़ख़्म पर छिड़कें कहाँ तिफ़्लान-ए-बे-परवा नमक

ग़ालिब

ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता

ग़ालिब

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं

ग़ालिब

वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ

ग़ालिब

तू दोस्त किसू का भी सितमगर न हुआ था

ग़ालिब

सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर

ग़ालिब

शबनम ब-गुल-ए-लाला न ख़ाली ज़-अदा है

ग़ालिब

रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए

ग़ालिब

फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया

ग़ालिब

फिर कुछ इक दिल को बे-क़रारी है

ग़ालिब

फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-ए-शराब

ग़ालिब

ओहदे से मद्ह-ए-नाज़ के बाहर न आ सका

ग़ालिब

नक़्श-ए-नाज़-ए-बुत-ए-तन्नाज़ ब-आग़ोश-ए-रक़ीब

ग़ालिब

नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच

ग़ालिब

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए

ग़ालिब

मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं

ग़ालिब

मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें

ग़ालिब

मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ

ग़ालिब

लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर

ग़ालिब

क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है

ग़ालिब

कहते हो न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया

ग़ालिब

जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की

ग़ालिब

जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे

ग़ालिब

जराहत तोहफ़ा अल्मास अर्मुग़ाँ दाग़-ए-जिगर हदिया

ग़ालिब

जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई

ग़ालिब

हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुख़न की आज़माइश है

ग़ालिब

हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या

ग़ालिब

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं

ग़ालिब

है किस क़दर हलाक-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा-ए-गुल

ग़ालिब

है बस-कि हर इक उन के इशारे में निशाँ और

ग़ालिब

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