कमां Poetry (page 2)

नावक-ज़नी निगाह की ऐ जान-ए-जाँ है हेच

श्याम सुंदर लाल बर्क़

बे-सबब वो न मिरे क़त्ल की तदबीर में था

शऊर बलगिरामी

क्या ख़बर थी कोई रुस्वा-ए-जहाँ हो जाएगा

शेर सिंह नाज़ देहलवी

नहीं सबात बुलंदी-ए-इज्ज़-ओ-शाँ के लिए

ज़ौक़

न करता ज़ब्त मैं नाला तो फिर ऐसा धुआँ होता

ज़ौक़

दिखला न ख़ाल-ए-नाफ़ तू ऐ गुल-बदन मुझे

ज़ौक़

आब ओ गिया से बे-नियाज़ सर्द जबीन-ए-कोह पर

शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

वक़्त हर बार बदलता हुआ रह जाता है

शमशीर हैदर

ज़ेर-ए-ज़मीं दबी हुई ख़ाक को आसाँ कहो

शमीम हनफ़ी

किसी का तीर किसी की कमाँ हो ठीक नहीं

शमीम अब्बास

तेरी नज़रों में तो अबरू में कमाँ ढूँडता हूँ

शकील जाज़िब

कशिश से दिल की उस अबरू-कमाँ को हम रखा बहला

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

कशिश से दिल की उस अबरू कमाँ को हम रखा बहला

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

हर गुल उस बाग़ का नज़रों में दहाँ है गोया

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

ख़ुद मुझ को मेरे दस्त-ए-कमाँ-गीर से मिला

शाहिद कमाल

ख़ुद मुझ को मेरे दस्त-ए-कमाँ-गीर से मिला

शाहिद कमाल

वक़्त-ए-नमाज़ है उन का क़ामत-गाह-ए-ख़दंग-ओ-गाह-ए-कमाँ

शाह नसीर

ख़ानदान-ए-क़ैस का मैं तो सदा से पीर हूँ

शाह नसीर

जब तलक चर्ब न जूँ शम्-ए-ज़बाँ कीजिएगा

शाह नसीर

सन लेवे अगर तू मिरी दिलदार की आवाज़

शाह आसिम

तीर ख़त्म हैं तो क्या हाथ में कमाँ रखना

शफ़ीक़ सलीमी

न जान कर गुल-ए-बाज़ी बहुत उछाल के फेंक

शाद लखनवी

वो कहाँ वक़्त कि मोड़ेंगे इनाँ और तरफ़

शानुल हक़ हक़्क़ी

औरत

शाद आरफ़ी

न अपना बाक़ी ये तन रहेगा न तन में ताब ओ तवाँ रहेगी

सययद मोहम्म्द अब्दुल ग़फ़ूर शहबाज़

थामी हुई है काहकशाँ अपने हाथ से

सरवत हुसैन

रहीन-ए-ख़्वाब हूँ और ख़्वाब के मकाँ में हूँ

सज्जाद बलूच

रहीन-ए-ख़्वाब हूँ और ख़्वाब के मकाँ में हूँ

सज्जाद बलूच

ये कोई बात है सुनता न बाग़बाँ मेरी

रियाज़ ख़ैराबादी

जफ़ा में नाम निकालो न आसमाँ की तरह

रियाज़ ख़ैराबादी

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