वक़्त हर बार बदलता हुआ रह जाता है
ख़्वाब ताबीर में ढलता हुआ रह जाता है
तुझ से मिलने भी चला आता हूँ मिलता भी नहीं
दिल तो सीने में मचलता हुआ रह जाता है
होश आता है तो होती है कमाँ अपनी तरफ़
और फिर तीर निकलता हुआ रह जाता है
Gulzar
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जुनूब ओ मश्रिक ओ मग़रिब तिरे शुमाल तिरा
सदियों के तआ'क़ुब में लम्हे नहीं जाएँगे
इक नींद की वादी से गुज़ारा गया मुझ को
सजे हुए बाम-ओ-दर से आगे की सोचता हूँ
कोई वज्द है न धमाल है तिरे इश्क़ में
दिनों से कैसे शबों में ढलते हैं दिन हमारे
ख़ुश-कुन ख़बर के धोके में रक्खा गया मुझे
जहान-ए-ख़्वाब-ए-मेहरबाँ की ख़ैर हो
वो अक्स मुझ में जुनूँ-साज़ रक़्स करने लगा