विचार Poetry (page 23)

इदराक ही मुहाल है ख़्वाब-ओ-ख़याल का

सबीला इनाम सिद्दीक़ी

ये रात दिन का बदलना नज़र में रहता है

सादुल्लाह शाह

ये जमाल क्या ये जलाल क्या ये उरूज क्या ये ज़वाल क्या

सादुल्लाह शाह

मोम पिघलाता रहा तेरा ख़याल

रुख़साना नूर

हज़ार रंग जलाल-ओ-जमाल के देखे

रूही कंजाही

रू-ए-ज़मीं नहीं कि सर-ए-आसमाँ नहीं

रोहित सोनी ‘ताबिश’

गरचे मिरे ख़ुलूस से वो बे-ख़बर न था

रोहित सोनी ‘ताबिश’

तुम्हारी याद तुम्हारा ख़याल काफ़ी है

रिज़वानूरर्ज़ा रिज़वान

कोई ख़्वाब था जो बिखर गया कोई दर्द था जो ठहर गया

रिज़वानूरर्ज़ा रिज़वान

अज़ीज़ इतना तिरा रंग-ओ-बू लगे है मुझे

रिज़वानूरर्ज़ा रिज़वान

ताख़ीर आ पड़ी जो बदन के ज़ुहूर में

रियाज़ लतीफ़

उठवाओ मेज़ से मय-ओ-साग़र 'रियाज़' जल्द

रियाज़ ख़ैराबादी

कली चमन में खिली तो मुझे ख़याल आया

रियाज़ ख़ैराबादी

आप आए तो ख़याल-ए-दिल-ए-नाशाद आया

रियाज़ ख़ैराबादी

ज़ुल्फ़ें छोड़ीं हैं कि जोड़ा उस ने छोड़ा साँप का

रिन्द लखनवी

क्यूँ-कर न लाए रंग गुलिस्ताँ नए नए

रिन्द लखनवी

ना-आश्ना-ए-दर्द नहीं बेवफ़ा नहीं

रिफ़अत सुलतान

अगर क़दम तिरे मय-कश का लड़खड़ा जाए

रिफ़अत सुलतान

शब-ओ-रोज़ रक़्स-ए-विसाल था सो नहीं रहा

रेहाना रूही

नज़्ज़ारा-ए-जमाल ने सोने नहीं दिया

रेहाना रूही

किसी की चश्म-ए-गुरेज़ाँ में जल बुझे हम लोग

रेहाना रूही

क़ल्ब-ओ-जिगर के दाग़ फ़रोज़ाँ किए हुए

रज़ी रज़ीउद्दीन

अब भी उसी तरह से इसे इंतिज़ार है

रज़ी रज़ीउद्दीन

हक़ीक़तों का पता दे के ख़ुद सराब हुआ

रज़ी मुजतबा

यूँ तो लिखने के लिए क्या नहीं लिक्खा मैं ने

राज़ी अख्तर शौक़

वो शाख़-ए-गुल की तरह मौसम-ए-तरब की तरह

राज़ी अख्तर शौक़

मैं कहाँ और अर्ज़-ए-हाल कहाँ

राज़ी अख्तर शौक़

हलाक-ए-कश्मकश-ए-राएगाँ बहुत से हैं

राज़ी अख्तर शौक़

जो ख़ुद न अपने इरादे से बद-गुमाँ होता

रज़ा लखनवी

कैफ़ नसीब अब कहाँ ग़ुंचों के भी जमाल में

रज़ा जौनपुरी

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