कली चमन में खिली तो मुझे ख़याल आया
किसी के बंद-ए-क़बा की गिरह खुली होगी
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क्या शराब-ए-नाब न पस्ती से पाया है उरूज
उफ़ रे उभार उफ़ रे ज़माना उठान का
जो हम आए तो बोतल क्यूँ अलग पीर-ए-मुग़ाँ रख दी
किस किस तरह बुलाए गए मय-कदे में आज
पीरी में 'रियाज़' अब भी जवानी के मज़े हैं
इस वास्ते कि आव-भगत मय-कदे में हो
क़द्र मुझ रिंद की तुझ को नहीं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
बहार आते ही फूलों ने छावनी छाई
ये सर-ब-मोहर बोतलें हैं जो शराब की
ख़ुदा के हाथ है बिकना न बिकना मय का ऐ साक़ी
घर में दस हों तो ये रौनक़ नहीं होगी घर में
उतरी है आसमाँ से जो कल उठा तो ला