पीरी में 'रियाज़' अब भी जवानी के मज़े हैं
ये रीश-ए-सफ़ेद और मय-ए-होश-रुबा सुर्ख़
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क्या मज़ा देती है बिजली की चमक मुझ को 'रियाज़'
ज़रा जो हम ने उन्हें आज मेहरबाँ देखा
हंस के पैमाना दिया ज़ालिम ने तरसाने के बा'द
लुट गई शब को दो शय जिस को छुपाते थे बहुत
काफ़िर बुतों के नाम हों क्यूँकर तमाम हिफ़्ज़
कोई मुँह चूम लेगा इस नहीं पर
ज़र्फ़-ए-वज़ू है जाम है इक ख़म है इक सुबू
पाऊँ तो इन हसीनों का मुँह चूम लूँ 'रियाज़'
ये सीधे जो अब ज़ुल्फ़ों वाले हुए हैं
पाया जो तुझे तो खो गए हम
ये कहाँ से हम गए हैं कहाँ कहें क्या तिरी तग-ओ-ताज़ में
हम को 'रियाज़' जानते हैं मानते हैं सब