क़द्र मुझ रिंद की तुझ को नहीं ऐ पीर-ए-मुग़ाँ
तौबा कर लूँ तो कभी मय-कदा आबाद न हो
Faiz Ahmad Faiz
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रहे हम आशियाँ में भी तो बर्क़-ए-आशियाँ हो कर
बाम पर आए कितनी शान से आज
कली चमन में खिली तो मुझे ख़याल आया
दिल-जलों से दिल-लगी अच्छी नहीं
आईना देखते ही वो दीवाना हो गया
ज़िद हमारी दुआ से होती है
कह के मैं दिल की कहानी किस क़दर खोया गया
सितम-ए-ना-रवा को रोते हैं
उतरी है आसमाँ से जो कल उठा तो ला
बहुत ही पर्दे में इज़हार-ए-आरज़ू करते
लुट गई शब को दो शय जिस को छुपाते थे बहुत
परा बाँधे सफ़-ए-मिज़्गाँ खड़ी है