ज़रा जो हम ने उन्हें आज मेहरबाँ देखा
न हम से पूछिए क्या रंग-ए-आसमाँ देखा
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क़ुलक़ुल-ए-मीना सदा नाक़ूस की शोर-ए-अज़ाँ
'रियाज़' एहसास-ए-ख़ुद्दारी पे कितनी चोट लगती है
जोबन उन का उठान पर कुछ है
थका ले और दौर-ए-आसमाँ तक
रोते जो आए थे रुला के गए
ये सीधे जो अब ज़ुल्फ़ों वाले हुए हैं
आईना देखते ही वो दीवाना हो गया
कहती है ऐ 'रियाज़' दराज़ी ये रीश की
मर गए फिर भी तअल्लुक़ है ये मय-ख़ाने से
इस हज में वो बुत भी साथ होगा
हम ने देखा तरफ़-ए-मय-कदा जाते थे 'रियाज़'
ये सर-ब-मोहर बोतलें हैं जो शराब की