रोते जो आए थे रुला के गए
इब्तिदा इंतिहा को रोते हैं
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न आया हमें इश्क़ करना न आया
आफ़त हमारी जान को है बे-क़रार दिल
मर कर अरे वाइज़ कोई ज़िंदा नहीं होता
जो थे हाथ मेहंदी लगाने के क़ाबिल
ये काली काली बोतलें जो हैं शराब की
आलम-ए-हू में कुछ आवाज़ सी आ जाती है
रंग लाएगा दीदा-ए-पुर-आब
ज़र्फ़-ए-वज़ू है जाम है इक ख़म है इक सुबू
मेरी सज-धज तो कोई इश्क़-ए-बुताँ में देखे
जो पिलाए वो रहे यारब मय-ओ-साग़र से ख़ुश
बाला-ए-बाम ग़ैर है में आस्तान पर
जिस दिन से हराम हो गई है