आलम-ए-हू में कुछ आवाज़ सी आ जाती है
चुपके चुपके कोई कहता है फ़साना दिल का
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दिल-जलों से दिल-लगी अच्छी नहीं
जो थे हाथ मेहंदी लगाने के क़ाबिल
ऐसी ही इंतिज़ार में लज़्ज़त अगर न हो
भर भर के जाम बज़्म में छलकाए जाते हैं
अच्छी पी ली ख़राब पी ली
सय्याद तिरा घर मुझे जन्नत सही मगर
मुझ को न दिल पसंद न दिल की ये ख़ू पसंद
मर गए फिर भी तअल्लुक़ है ये मय-ख़ाने से
मुफ़लिसों की ज़िंदगी का ज़िक्र क्या
उस हुस्न का शैदा हूँ उस हुस्न का दीवाना
जो उन से कहो वो यक़ीं जानते हैं
बहार आते ही फूलों ने छावनी छाई