ऐसी ही इंतिज़ार में लज़्ज़त अगर न हो
तो दो घड़ी फ़िराक़ में अपनी बसर न हो
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छेड़ते हैं गुदगुदाते हैं फिर अरमाँ आज-कल
छुपता नहीं छपाने से आलम उभार का
नासेह के सर पर एक लगाई तड़ाक़ से
कोई पूछे न हम से क्या हुआ दिल
ज़रूर पाँव में अपने हिना वो मल के चले
रंग पर कल था अभी लाला-ए-गुलशन कैसा
वा'दा था जिस का हश्र में वो बात भी तो हो
सुब्ह है रात कहाँ अब वो कहाँ रात की बात
ये कम-बख़्त इक जहान-ए-आरज़ू है
अहल-ए-हरम से कह दो कि बिगड़ी नहीं है बात
नज्द में क्या क़ैस का है उर्स आज
मर कर अरे वाइज़ कोई ज़िंदा नहीं होता